शहीदे आजम भगतसिंह के जन्म दिवस पर शहीद आजम भगतसिंह के विचारों को अपनाएँ और फैलाएँ

by Sandeep Verma
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28 सितंबर को शहीद भगतसिंह का जन्मदिन है। मौजूदा अँधेरे समय में उन्हें याद करने का हमारे लिए बहुत महत्व है। शहीद भगतसिंह की क़ुर्बानी, बहादुरी, और ख़ुशी-ख़ुशी फाँसी के तख़्ते पर झूल जाने के बारे में कमोबेश देश के ज़्यादातर लोग जानते हैं। शहीद भगतसिंह की शख़्तियत की तस्वीर लोगों के दिमाग़ों में एक हथियारबंद क्रांति‍कारी के रूप में उकरी हुई है, जो अपनी ज़िंदगी की परवाह नहीं करते थे और मौत से किलोलें करते थे। लेकिन यह एक त्रासदी ही है कि देश के बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कितने चिंतनशील व्यक्ति थे। जैसा कि शहीद भगतसिंह ने लिखा था – “सिर्फ़ बम और पिस्तौल ही क्रांति नहीं लाते, क्रांति की की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है।” भगतसिंह और उनके साथियों द्वारा लिखे लेखों-दस्तावेज़ों-संस्मरणों में यह बात उभरकर सामने आती है कि उनका इंक़लाबी होना महज़ एक भावना या जवानी का जोश नहीं था, बल्कि मानव इतिहास, वर्तमान और भविष्य, विभिन्न आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं, विभिन्न राजनीतिक पार्टियों, इंसान के हाथों इंसान की लूट के ख़ात्मे, भगवान, धर्म, जातिवाद, सांप्रदायिकता आदि मुद्दों पर वे साफ़-स्पष्ट, गहरी आलोचनात्मक समझ रखते थे। भगतसिंह इस मामले में अपने सभी साथियों में अग्रणी थे। पहले संगठन के कामों और बाद में जेल में मुक़दमे के तरीक़ों की तैयारी, भूख-हड़ताल, जेल में साथियों से विचार-विमर्श और बाहर के संपर्कों से चिट्ठी-पत्र आदि व्यस्तताओं के बावजूद वह मेहनत से अध्ययन करते थे। शहीद भगतसिंह की अध्ययन में दिलचस्पी का अंदाज़ा उनके साथी शिव वर्मा द्वारा लिखी गई पुस्तिका ‘ऐसे थे हमारे भगतसिंह’ से लिए गए इस उद्धरण से लगाया जा सकता है “उसे पढ़ने-लिखने का भी बेहद शौक़ था। वह जब भी कानपुर आता तो अपने साथ दो-चार पुस्तकें अवश्य लाता। बाद में फ़रार जीवन में जब उसके साथ रहने का अवसर मिला, तो देखा कि पिस्तौल और पुस्तक का उसका चैबीस घंटे का साथ था। मुझे एक भी अवसर याद नहीं पड़ता, जब मैंने उसके पास कोई-न-कोई पुस्तक ना देखी हो।” शहीद भगतसिंह की किताबें पढ़ने में अथाह दिलचस्पी तो थी ही, लेकिन वे एक सक्षम विचारक और गहरी आलोचनात्मक समझ रखने वाले क्रांतिकारी थे। उनकी अध्ययन की क्षमता, कमाल की समझदारी और दिलचस्पी के विषयों के बारे में किसी को जानना हो, तो उनकी जेल डायरी पढ़नी चाहिए। कार्ल मार्क्स, लेनिन, जार्ज बर्नार्ड शा, अप्टन सिंक्लेयर, जैक लंडन आदि अनेकों लेखकों की रचनाओं, फ़्रांसीसी क्रांति से लेकर रूसी क्रांति तक उन्होंने अध्ययन किया। इस अध्ययन से उनमें सामाजिक विकास के बारे में एक वैज्ञानिक समझ पैदा हुई। इस अध्ययन की बदौलत उन्होंने भारत की आज़ादी के आंदोलन के बारे में बहुत ज़रूरी नतीजे निकाले। बहुत से लोग नहीं जानते कि उनका मक़सद सिर्फ़ उपनिवेशवादी-साम्राज्यवादी ग़ुलामी से मुक्ति हासिल करना नहीं था। विदेशी ग़ुलामी से आज़ादी के बाद वह भारत में समाजवादी व्यवस्था का निर्माण चाहते थे। शहादत से दो दिन पहले पंजाब के गवर्नर को लिखे ख़त में शहीद भगतसिंह ने लिखा था “हम यह ऐलान करते हैं कि एक युद्ध चल रहा है और यह तब तक जारी रहेगा, जब तक कुछ शक्तिशाली व्यक्ति भारतीय मेहनतकश जनता को और उसके आमदनी के साधनों को लूटते रहेंगे। ये लुटेरे भले ही शुद्ध अंग्रेज़ पूँजीपति हों या शुद्ध भारतीय पूँजीपति या दोनों मिले हुए… इस सबसे हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।” यह उनके अध्ययन और चिंतन का ही नतीजा था कि उन्होंने कुछ क्रांतिकारियों की दुस्साहसवादी कार्रवाइयों द्वारा आज़ादी हासिल करने की ग़लत समझ की जगह जनक्रांति की समझदारी हासिल की। भगतसिंह की विकसित हुई यह समझदारी उनके इस कथन से साफ़ झलकती है “इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठाएँ। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी अधिक महत्वपूर्ण काम हैं।… नौजवानों को क्रांति का यह संदेश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है, फै़क्टरीकारख़ानों के क्षेत्रों में, गंदी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है, जिससे आज़ादी आएगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असंभव हो जाएगा।” शहीद भगतसिंह में ना सिर्फ़ अध्ययन की अथाह क्षमता थी, बल्कि वह एक सक्षम लेखक भी थे। घर से भागकर कानपुर आने और पत्रकार के रूप में ‘प्रताप’ (कानपुर), ‘महारथी’ (दिल्ली), ‘चांद’ (इलाहाबाद), ‘अर्जुन’ (दिल्ली), और मतवाला आदि कई हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने कई नक़ली नामों से लेख लिखे। ‘किरती’ में वे ‘विद्रोही’ उपनाम से पंजाबी में लिखते थे। इस अख़बार के कई संपादकीय लेख भी उन्होंने ही लिखे। उर्दू में भी वे बढ़िया लिखते थे। उन्होंने जितना लिखा उसमें से कुछ मिल चुका है जो पंजाबी, हिंदी, अंग्रेज़ी और भारत की कुछ अन्य भाषाओं में छप चुका है, जिसका हर किसी हो ज़रूर अध्ययन करना चाहिए। उनकी और भी रचनाएँ मिल पाने की संभावनाएँ हैं। शहीद भगतसिंह द्वारा लिखी किताबों की पांडुलिपियाँ गुम हैं। ये किताबें हैं – (1) आत्मकथा (2) समाजवाद का आदर्श (3) भारत में क्रांतिकारी आंदोलन (4) मौत के दरवाज़े पर। हो सकता है कि भविष्य में ये किताबें और अन्य रचनाएँ भी मिल जाएँ लेकिन उपलब्ध रचनाएँ शहीद भगतसिंह के विचारों, उनके पढ़ने-समझने-लिखने की क्षमता के बारे में काफ़ी कुछ बताती हैं। अपने सभी साथियों में से शहीद भगतसिंह की विचारक क्षमता सबसे अधिक थी, लेकिन अन्य साथी जैसे भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव, बुटकेश्वर दत्त, शिव वर्मा, विजय कुमार सिन्हा आदि भी अच्छी विचारक क्षमता वाले क्रांतिकारी थे। हिंदुत्वी कट्टरपंथी और सिख कट्टरपंथी भगतसिंह को बेहद कमीनगी भरे ढंग से अपने-अपने हिसाब से पेश करने में लगे हुए हैं। हिंदुत्वी कट्टरपंथी भगतसिंह को हिंदु राष्ट्रवादी के तौर पर और सिख कट्टरपंथियों का एक हिस्सा भगतसिंह को सिख साबित करने में लगा हुआ है। जबकि भगतसिंह ना सिर्फ़ धार्मिक कट्टरता और जनता को धर्म के नाम पर बाँटने के सख़्त विरोधी थे, बल्कि वे तो नास्तिक थे। ईश्वर और धर्म संबंधी उनके स्पष्ट विचार ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ और ‘ड्रीमलैंड की भूमिका’ लेखों में दर्ज हैं। गहरे अध्ययन और चिंतन से उनका मानना था कि “ब्रह्मांड के सृजनकर्ता, पालनहार और सर्वशक्तिमान के अस्तित्व का सिद्धांत बेबुनियाद है” और “प्रकृति को चलाने वाला कोई ईश्वर या सचेतन सत्ता नहीं है।” पाप-पुण्य, जन्म-कर्म, क़ि‍स्मत के सिद्धांतों का विरोध करते हुए भगतसिंह ने साफ़ लिखा था – “मेरे प्यारे दोस्तो, ये सिद्धांत विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के मनगढ़ंत सिद्धांत हैं। वे इन सिद्धांतों के ज़रिए ज़बरदस्ती हथियाई हुई अपनी शक्ति संपन्नता और श्रेष्ठता को जायज ठहराते हैं।”भगतसिंह ईश्वर को मानने या ना मानने को, किसी भी धर्म को अपनाने को व्यक्तिगत मसला मानते थे। इस आधार पर किसी से नफ़रत नहीं की जानी चाहिए, किसी को दबाया नहीं जाना चाहिए, इस आधार पर नफ़रत फैलाने वालों से ख़बरदार रहना चाहिए और वर्गीय एकता कायम करनी चाहिए। उन्होंने लिखा था – “जनता को आपस में लड़ने से रोकने के लिए वर्गीय चेतना की ज़रूरत है। ग़रीब मेहनतकशों और किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ ना करना चाहिए। दुनिया के सारे ग़रीबों के, चाहे वो किसी भी जाति, नस्ल, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता और देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा कुछ नुक़सान ना होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी ज़ंजीरें कट जाएँगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी।” शोषक वर्ग जब जनता के दिमाग़ों से उनके नायकों की याद मिटा पाने में नाकाम होते हैं, तो वे जन-नायकों की शख़्सियतों को महज़ बुतों में बदल देने की कोशिश करते हैं। यही शहीद भगतसिंह और उनके साथियों की शख़्सियतों के साथ हुआ है। अगस्त 1947 में अंग्रेज़ों के साथ हुए शर्मनाक समझौते के ज़रिए जिन्होंने राजकाज पर क़ब्ज़ा किया वे देश के करोड़ों मज़दूरों-मेहनतकशों की नुमाइंदगी करने वाले हरगिज नहीं थे। उन्होंने पूँजीपति वर्ग के हितों के मुताबिक़ देश की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था का रूपांतरण किया। शहीद भगतसिंह की रचनाएँ आज हमारे पास इस बात का सबूत हैं कि आज़ादी के बाद जिस पूँजीवादी व्यवस्था का निर्माण देश में हुआ है, वे उसके सख़्त ख़िलाफ़ थे। शहीद भगतसिंह के विचारक पहलू से लोगों के परिचित कराने का अर्थ है मौजूदा शोषक व्यवस्था के ख़िलाफ़ जनता को जागृत करना। पूँजीपति वर्ग, उसकी सेवक सरकार, विभिन्न पूँजीवादी-धार्मिक कट्टरपंथी-जातिवादी पार्टियाँ-संगठन-संस्थाएँ, भाड़े के कलमघसीट बुद्धिजीवी, पूँजीवादी शिक्षा व्यवस्था, पूँजीवादी मीडिया आदि जनता को शहीद भगतसिंह के विचारों से परिचित कराने का काम नहीं करेंगे। यह उनके हितों के ख़िलाफ़ है। बल्कि उन्होंने तो क्रांतिकारी शहीदों के विचारों को दबाने की पुरज़ोर कोशिशें की हैं। उन्होंने जनता के मनों में शहीद भगतसिंह की असल शख़्सियत की जगह बम-पिस्तौलों के शौक़ीन, अंग्रेज़ों के ख़ून के प्यासे नौजवान की शख़्सियत बिठा दी। असल में शोषक वर्ग चंद जोशीले दुस्साहसवादी व्यक्तियों की कार्रवाइयों के नहीं बल्कि जनसंघर्षों से डरते हैं। मौजूदा हालातों के समझने और बदलने के लिए अपनी क्रांतिकारी विरासत से जुड़ना, शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के जीवन और विचारों का जानना-समझना बहुत ज़रूरी है। हमें ना सिर्फ़ उत्पीड़ित जनता से प्यार, उसके लिए संघर्ष करने, उसकी बेहतरी के लिए अपनी ज़िंदगी लगाने, जान क़ुर्बान करने की भावना को अपनाना चाहिए बल्कि जिस दिलचस्पी और मेहनत से शहीद भगतसिंह और उनके अन्य साथियों ने देश-दुनिया के साहित्य का अध्ययन किया, उसी ढंग से हमें भी अध्ययन करना होगा। बिना अध्ययन किए हम ना तो समाज के मौजूदा हालातों की सही समझ हासिल कर सकते हैं और ना ही समाज को बदलने का सही रास्ता अपना सकते हैं। समाज को समझने और बदलने का विज्ञान अध्ययन से ही हासिल हो सकता है। हमें ना सिर्फ़ ख़ुद शहीद भगतसिंह और उनके साथियों के जीवन और विचारों के बारे में जानना चाहिए और वैज्ञानिक-प्रगतिशील-क्रांतिकारी साहित्य से जुड़ना चाहिए बल्कि व्यापक जनता तक इसे पहुँचाने के काम में शामिल होना चाहिए। हमें वॉलंटीयर बनकर घर-घर, स्कूलों, कॉलजों, यूनिवर्सिटियों तक ऐसी किताबें लेकर जानी होगा। जगह-जगह पुस्तकालय स्थापित करने होंगे। सामूहिक अध्ययन, गोष्ठियाँ, अध्ययन मंडल जैसी गतिविधियाँ चलानी होंगी और रचनात्मक ढंग से ऐसा और भी बहुत कुछ करना होगा। हमारी ऐसी कोशिशें एक बेहतर समाज के निर्माण की तरफ़ बेहद महत्वपूर्ण क़दम होंगी।

 

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