

“स्वघोषित धर्मनिरपेक्ष दल विशेष तौर पर मुस्लिम समुदाय की राजनीतिक भागीदारी से क्यों चिढ़ते हैं? दरअसल, वे ही मुस्लिम सशक्तिकरण से सबसे ज़्यादा डरते हैं। क्योंकि उन्हें मुस्लिम वोट चाहिए,लेकिन उस वोट देने वाले का उन्हें नेतृत्व नहीं चाहिए। उन्हें ऐसे मुसलमान नहीं चाहिए जो सवाल पूछ सकें और समानता के लिए खड़े हो सकें।आज़ादी के बाद से यही फ़ॉर्मूला अपनाया जाता रहा है दोस्तों, यही भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा पाखंड है!जो लोग खुद को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं—उन्होंने एक रणनीति तैयार की हुई है जिसका नाम है
“बीजेपी का डर दिखाओ, वोट लो, और फिर पाँच साल चुप रहो।”
झूठी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर, मुसलमानों को पोस्टरों पर जगह दी गई सबसे नीचे वाली लाइन में और मंच पर भी जगह तो दी गई मगर पिछली कतार में और जो निर्णय लेने वाली मेज है उससे कोसों दूर रखा गया जिसका मुख्य कारण उनका अपना डर है उनका मानना है जैसे ही मुस्लिम समुदाय को वास्तविक राजनीतिक भागीदारी मिलेगी,वे उनके वोट बैंक से नागरिक बन जाएँगे, और उनकी सत्ता जाती रहेगी और यही बात इन पार्टियों को सबसे ज़्यादा परेशान करती है।उन्हें डर है कि अगर मुसलमान अपनी आवाज़ बन गए,तो “डर की राजनीति” नहीं, बल्कि “अधिकारों की राजनीति” शुरू हो जाएगी।यह कैसी धर्मनिरपेक्षता है जो मुस्लिम वोट चाहती है, मगर मुस्लिम भागीदारी नहीं!
किसी मुसलमान के नेता बनने के विचार से भारत की राजनीति में भूकंप आ जाता है और उसके खिलाफ एक प्रोपेगेंडा झूठ फैलाकर उसे किसी दल की B टीम C टीम कहकर बदनाम किया जाता है ?यह इस देश में धर्मनिरपेक्ष राजनीति का दोहरा मापदंड है।अब समय आ गया है कि मुस्लिम समुदाय को चाहिए वह किसी पार्टी का वोट बैंक न बने,बल्कि अपने अधिकारों रक्षा के लिए राजनीति करें और किसी भी दल के साथ जाने से या अपना दल बनाने से पीछे न हटे क्योंकि जो दल खुद को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं वे सच्ची धर्मनिरपेक्षता तभी समझ पाएँगे जब अल्पसंख्यक समुदाय उनके बराबरी की स्थिति में होगा तो आखिर में यही लिखूंगा की सत्ता में आने की सियासत करो ना की लाइन में लगकर सिर्फ वोट देने तक सीमित रहो ..जय हिंद , जय संविधान
नईम खान एडवोकेट
राजनीतिक विशेषज्ञ
