सुरेश्वरि माँ भागीरथीके अवतरण दिवस “गङ्गा दशहरा” के पावन पर्व पर जीवनदायिनी मोक्षदायिनी माँ जाह्नवीके चरणोंमें समर्पित🙏
॥श्रीगङ्गास्तोत्रम्॥
देवि सुरेश्वरि भगवति गङ्गे त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गे ।
शङ्करमौलिविहारिणि विमले मम मतिरास्तां तव पदकमले ॥१॥
हे देवि गङ्गे ! तुम देवगणकी ईश्वरी हो, हे भगवति ! तुम त्रिभुवनको तारनेवाली, विमल और तरल तरङ्गमयी तथा शङ्करके मस्तकपर विहार करनेवाली हो । हे मातः ! तुम्हारे चरणकमलोंमें मेरी मति लगी रहे ॥१॥
भागिरथि सुखदायिनि मातः तव जलमहिमा निगमे ख्यातः ।
नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥२॥
हे भागिरथि ! तुम सब प्राणियोंको सुख देती हो, हे मातः ! वेद-शास्त्रमें तुम्हारे जलका माहात्म्य वर्णित है, मैं तुम्हारी महिमा कुछ नहीं जानता, हे दयामयि ! मुझ अज्ञानीकी रक्षा करो ॥२॥
हरिपदपाद्यतरङ्गिणि गङ्गे हिमविधुमुक्ताधवलतरङ्गे ।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥३॥
हे गङ्गे ! तुम श्रीहरिके चरणोंकी चरणोदकमयी नदी हो, हे देवि ! तुम्हारी तरङ्गे हिम, चन्द्रमा और मोतीकी भाँति श्वेत हैं, तुम मेरे पापोंका भार दूर कर दो और कृपा करके मुझे भवसागरके पार उतारो ॥३॥
तव जलममलं येन निपीतं परमपदं खलु तेन गृहीतम् ।
मातर्गङ्गे त्वयि यो भक्तः किल तं द्रंष्टुं न यमः शक्तः ॥४॥
हे देवि ! जिसने तुम्हारा जल पी लिया, अवश्य ही उसने परमपद पा लिया, हे मातः गङ्गे ! जो तुम्हारी भक्ति करता है, उसको यमराज नहीं देख सकता (अर्थात् तुम्हारे भक्तगण यमपुरीमें न जाकर वैकुण्ठमें जाते हैं) ॥४॥
पतितोद्धारिणि जाह्नवि गङ्गे खण्डितगिरिवरमण्डितभङ्गे ।
भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये पतितनिवारिणि त्रिभुवनधन्ये ॥५॥
हे पतितजनोंका उद्धार करनेवाली जह्नुकुमारी गङ्गे ! तुम्हारी तरङ्गें गिरिराज हिमालयको खण्डित करके बहती हुई सुशोभित होती हैं, तुम भीष्मकी जननी और जह्नुमुनिकी कन्या हो, पतितपावनी होनेके कारण तुम त्रिभुवनमें धन्य हो ॥५॥
कल्पलतामिव फलदां लोके प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके ।
पारावारविहारिणि गङ्गे विमुखयुवतिकृततरलापाङ्गे ॥६॥
हे मातः ! तुम इस लोकमें कल्पलताकी भाँति फल प्रदान करनेवाली हो, तुम्हें जो प्रणाम करता है, वह कभी शोकमें नहीं पड़ता, हे गङ्गे ! तुम समुद्रके साथ विहार करती हो और तुम्हारा चपल अपाङ्ग (नेत्र-कोण) विमुख वनिताकी तरह चञ्चल है ॥६॥
तव चेन्मातः स्त्रोतःस्नातः पुनरपि जठरे सोऽपि न जातः ।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गङ्गे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुङ्गे ॥७॥
हे गङ्गे ! जिसने तुम्हारे प्रवाहमें स्नान कर लिया, वह फिर मातृगर्भमें प्रवेश नहीं करता, हे जाह्नवि ! तुम भक्तोंको नरकसे बचाती हो और उनके पापोंका नाश करती हो, तुम्हारा माहात्म्य अतीव उच्च है ॥७॥
पुनरसदङ्गे पुण्यतरङे जय जय जाह्नवि करुणापाङ्गे ।
इन्द्रमुकुटमणिराजितचरणे सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ॥८॥
हे करुणाकटाक्षवाली जह्नुपुत्री गङ्गे ! मेरे अपावन अङ्गोंपर अपनी पावन तरङ्गोंसे युक्त हो उल्लसित होनेवाली, तुम्हारी जय हो ! जय हो !! तुम्हारे चरण इन्द्रके मुकुटमणिसे प्रदीप्त हैं, तुम सबको सुख और शुभ देनेवाली हो और अपने सेवकको आश्रय प्रदान करती हो ॥८॥
रोगं शोकं तापं पापं हर मे भगवति कुमतिकलापम् ।
त्रिभुवनसारे वसुधाहारे त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे ॥९॥
हे भगवति ! तुम मेरे रोग, शोक, ताप, पाप और कुमति-कलापको हर लो, तुम त्रिभुवनकी सार और वसुधाका हार हो, हे देवि ! इस संसारमें एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो ॥९॥
अलकानन्दे परमानन्दे कुरु करुणामयि कातरवन्द्ये ।
तव तटनिकटे यस्य निवासः खलु वैकुण्ठे तस्य निवासः ॥१०॥
हे दुःखियोंकी वन्दनीया देवि गङ्गे ! तुम अलकापुरीको आनन्द देनेवाली और परमानन्दमयी हो, तुम मुझपर कृपा करो, हे मातः ! जो तुम्हारे तटके निकट वास करता है, वह मानो वैकुण्ठमें ही वास करता है ॥१०॥
वरमिह नीरे कमठो मीनः किं वा तीरे शरटः क्षीणः ।
अथवा श्वपचो मलिनो दीनः तव न हि दूरे नृपतिकुलीनः ॥११॥
हे देवि ! तुम्हारे जलमें कच्छप या मीन बनकर रहना अच्छा है, तुम्हारे तीरपर दुबला-पतला गिरगिट (कृकलास) बनकर रहना अच्छा है या अति मलिन दीन चाण्डालकुलमें जन्म ग्रहण कर रहना अच्छा है परन्तु (तुमसे) दूर कुलीन नरपति होकर रहना भी अच्छा नहीं ॥११॥
भो भुवनेश्वरि पुण्ये धण्ये देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।
गङ्गास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरो यः स जयति सत्यम् ॥१२॥
हे देवि ! तुम त्रिभुवनकी ईश्वरी हो, तुम पावन और धन्य हो, जलमयी तथा मुनिवरकी कन्या हो । जो प्रतिदिन इस गङ्गास्तवका पाठ करता है, वह निश्चय ही संसारमें जयलाभ कर सकता है ॥१२॥
येषां ह्रदये गङ्गाभक्तिः तेषां भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकान्तापज्झटिकाभिः परमानन्दकलितललिताभिः ॥१३॥
जिनके ह्रदयमें गङ्गाके प्रति अचला भक्ति है, वे सदा ही आनन्द और मुक्ति लाभ करते हैं; यह स्तुति परमानन्दमयी सुललित पदावलीसे युक्त, मधुर और कमनीय है ॥१३॥
गङ्गास्तोत्रमिदं भवसारं वाञ्छितफलदं विमलं सारम् ।
शङ्करसेवकशङ्कररचितं पठति सुखी स्तव इति च समाप्तः ॥१४॥
इस असार संसारमें उक्त गङ्गास्तव ही निर्मल सारवान् पदार्थ है, यह भक्तोंको अभिलषित फल प्रदान करता है; शङ्करके सेवक शङ्कराचार्यकृत इस स्तोत्रको जो पढ़ता है, वह सुखी होता है—इस प्रकार यह स्तोत्र समाप्त हुआ ॥१४॥
इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं गङ्गास्तोत्रम् सम्पूर्णम् ।
🙏जय माँ गंगे हर हर गंगे नमामि गंगे 🌹🚩







